भारत व चीन में आर्थिक प्रतिद्वन्दता - By डाॅo सूर्य प्रकाश अग्रवाल (Dr. S.P. Agarwal)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मानना है कि पड़ोसी कभी भी बदले नहीं जा सकते इसलिए उनसे भाईचारा बना कर रखना चाहिए तभी उन्होंने जब 26 मई 2014 को प्रथम बार प्रधानमंत्री के पद की शपथ ग्रहण ली तो उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में भारत के सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंन्त्रित किया था तथा इसके पीछे उनकी मन्शा यही थी कि आओं हम सब मिल कर इस क्षेत्र में गरीबी, बिमारी, अशिक्षा व बेरोजगारी को दूर करें। परन्तु उनकी यह इच्छा कुछ पड़ोसियों की कट्टरवादिता, संकीर्ण विचारधारा तथा हठधर्मिता के कारण पूरी न हो सकी और वे पड़ोसी देश आतंकवाद व कट्ठमुल्लापन के पीछे ही भागते नजर आये।

एक कहावत और भी है कि पड़ोसी को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए इससे पड़ोसी से होड़ व प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। एक पड़ोसी दूसरे के जैसा बनने तथा आगे निकलने की होड़ में लगा रहता है यदि पड़ोसी ने कुछ हासिल किया तो दूसरा पड़ोसी भी येन - केन प्राकेण उसको हासिल करना चाहता है। यह प्रतिस्पर्धा अच्छी समझी जाती है तथा अधिकतर मामलों में इस प्रवृति से दोनों का कल्याण ही होता है तथा समृद्धि बढ़ती है। एशिया में भारत व चीन जो पड़ोसी देश है, में भी गत 500-600 वर्षों से ऐसी ही प्रवृति देखी जा रही है। यह प्रवृति उस समय भी थी जब भारत 16 वीं से 19 वीं सदी तक ब्रिटेन का उपनिवेश था परन्तु 21 वीं सदी आते आते भारत व चीन दोनों ही विश्व में सबसे तेजी से विकसित होेने वाली अर्थव्यवस्थाऐं बन गई और इस प्रतिस्पर्धा में चीन भारत से आगे निकल गया क्योंकि उस समय भारत के पैरों में अंग्रेजों की पराधीनता की बेड़ियां पड़ी हुई थी परन्तु कोरोना से पूर्व चीनी अर्थव्यवस्था ढहराव की ओर बढ़ गई जिसे विश्व भारत की ओर देखने लगा। कोरोना वायरस के प्रकरण के बाद पुनः विश्व भारत व चीन के बीच आर्थिक वर्चस्व की जंग एक कौतुक का विषय बनने लगा है। 

16 वीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था की विश्व की आय में 24.5 प्रतिशत हिस्सेदारी थी तथा इस हिस्सेदारी के मामले में चीन के बाद भारत दूसरे स्थान पर था। लालसागर से होकर भारतीय सामान को यूरोप ले जाकर अरब व्यापारियों के द्वारा बेचा जाता था। मसाले, चीनी, कालीन, आम व कपड़ा इत्यादि भारत बेचता था तथा सोना चांदी खरीदता था। यूरोप व चीन के बीच सीधा संमुद्री व्यापार पुर्तगालियों के साथ शुरु हुआ था। उसके बाद इस क्षेत्र में अन्य यूरोपीय देश उतर आये। भारत व चीन भी जमीन के रास्तों में आपस में व्यापार करते थे। 17 वीं सदी में भारत के शासक मुगलों की आय लगभग 17.5 करोड़ पौंड हो चुकी थी जो ब्रिटिश बजट से अधिक थी। शाहजंहा के दौर में आयात की तुलना में निर्यात अधिक होता था। खंभात बन्दरगाह एक वर्ष में लगभग तीन हजार समुद्री जहाज व्यापारिक सामान लेकर भारत में आते जाते थे। चीन का भी इस दौर में वैश्विक व्यापार क 25 प्रतिशत पर आधिपत्य था। 1637 में अंग्रेजों ने कौटोंन (चीन) में एक व्यापार चैकी बनायी। 1680 में चीन के क्विंग शासन के दौरान संमुद्री व्यापार पर छूट मिली तो व्यापार बहुत बढ़ गया तथा ताइवान भी क्विंग साम्राज्य के अधीन हो चुका था। 18 वीं सदी में मुगल शासक ओरंगजेब के समय भी विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 24.4 प्रतिशत था परन्तु जैसे जैसे मुगल शासक कमजोर पड़े तो ईस्ट इंड़िया कम्पनी ने भारत के व्यापार पर कब्जा कर भारत के विश्व व्यापार की हिस्सेदारी को भी छिन्न भिन्न कर दिया। चीन की विश्व व्यापार में 1760 में हिस्सेदारी कम हो गई थी। इसका कारण वे सख्त कानून थे जो विदेशियों व विदेशी जहाजों के लिए बनाये गये थे। मात्र कौंटेन बन्दरगाह को इन कानूनों से मुक्त रखा था। अमरिका का व्यापार चीन के साथ 1776 में शुरु हुआ जिससे ब्रिटेन को नुकसान हो गया। 19 वीं सदी में भारत का विश्व व्यापार में हिस्सा गिर कर 16 प्रतिशत रह गया था तथा 1820 तक भारत की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था ईस्ट इंड़िया कम्पनी के हाथों में आ गई थी। ईस्ट इंड़िया कम्पनी ने चीन के साथ अफीम का व्यापार बहुत बढ़ाया, ईस्ट इंड़िया कम्पनी ने भारत में कृषि की व्यवस्था को ही बदल कर रख दिया जिससे 1870 तक भारत की वैश्विक व्यापार में हिस्सेदारी घटकर 12.2 प्रतिशत ही रह गई। चीन में बन्दरगाहों को खोलने से क्विंग शासक ने इंकार कर दिया तथा अफीम के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया जिससे चीन व ब्रिटेन में युद्ध हुआ। चीन ने पराजय के बाद अफीम के व्यापार को पुनः शुरु कर दिया तथा चीन के विकसित क्षेत्रों को भी व्यापार के लिए खोल दिया। 1843 के बाद आठ साल में ही चीन का चाय का निर्यात पांच गुना बढ़ गया था। 20 वीं सदी में भारत की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी 1913 में मात्र 7.6 प्रतिशत रह गई जो 1952 में मात्र 3.8 प्रतिशत ही रह गया। 1973 में यह 3.1 प्रतिशत रह गया। 1991 में भारत में नरसिंहराव के शासन काल में उदारीकरण की शुरुआत हो गई जिससे 1998 में वैश्विक आय में भारत की हिस्सेदारी बढ़ कर 5 प्रतिशत हो गई।साम्यवादी बनने से पहले 1949 से पूर्व कपास, अनाज, कच्चा तेल, कोयला व धागा का अधिक मात्रा में उत्पादन किया जाता था। 1980 में शेन झेन ने विशेष आर्थिक क्षेत्र गठित किया। 1986 में ओपन डोर पाॅलिसी अपनायी गई जिससे विदेशी निवेश बढ़ गया। 1992 में सोशलिस्ट मार्केट इकोनाॅमी की स्थापना हुई तथा विश्व के दस शीर्षस्थ अर्थव्यवस्थाओं में चीन शामिल हो गया। 21 वीं सदी के शुरुआत में 2005 में देश अर्थव्यवस्था भी 3815.6 अरब डॅालर की हो गई थी तथा विश्व की आय में हिस्सेदारी भी 6.3 प्रतिशत हो गई थी। अब भारत की हिस्सेदारी 3.2 प्रतिशत है जो विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मानी जा रही है। 2001 में चीन विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया। अमेरिका के बाद चीन की अर्थव्यवस्था विश्व में दूसरे नम्बर पर आ गई तथा विश्व अर्थव्यवस्था में अब चीन की 16 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। 

भारत सेवा प्रदाता क्षेत्र में महारत रखता है जबकि चीन निर्मित वस्तुओं का एक बड़ा निर्यातक है। भारत के विकास में भी उद्योग की अपेक्षा सेवा क्षेत्र का योगदान अधिक है। अमेरिका के आर्थिक विकास के ढ़ांचे से मिलता जुलता भरत का आर्थिक ढ़ांचा है क्योंकि अमेरिका में सेवा क्षेत्र का योगदान अधिक है। चीन का विनिर्माण उद्योग एक दशक में 300 प्रतिशत बढ़ गया है जो जीड़ीपी का 40 प्रतिशत है। सेवा क्षेत्र चीन में उसके बाद आता है। भारत में तकनीकी परिस्थितियों ने औद्योगिकीकरण की अपेक्षा सेवा क्षेत्र को विकास का नया चालक बनाने में सक्षम बनाया है। विश्व में विनिर्माण क्षेत्र में चीन की हिस्सेदारी 28.42 प्रतिशत है जबकि भारत के कुल निर्यात में वाणिज्यिक सेवाओं की हिस्सेदारी 38.6 प्रतिशत है जो विश्व का 22.9 प्रतिशत ही है। 
  
भारत व चीन दोनों ही विश्व में एक मजबूत अर्थव्यवस्था बन कर उभर रहे है तथा इसका प्रमुख कारण दोनों ही देशों में बड़ी मात्रा में जनसंख्या है। जिसके कारण सभी आर्थिक क्षेत्रों में श्रम आसानी से उपलब्ध हो जाते है। चीन में हालांकि साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) शासन व्यवस्था है जिसकी नीतियों की सख्ती के कारण जनसंख्या में वृद्धि में एक स्थायित्व की स्थिति आ गई है। जबकि लोकतंत्र के चलते भारत में जनसंख्या में खतरनाक रुप से प्रति वर्ष वृद्धि हो जाती है। अर्थव्यवस्था में तीव्र गति से आगे बढ़ने के लिए भारत को मजबूती के साथ जनसंख्या में बृद्धि दर को कम करना ही पड़ेगा तथा जनसंख्या की शिक्षा व स्वास्थ्य पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देना होगा। कृषि व ग्रामीण क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है। इसमें ही बड़ी मात्रा में रोजगार देने की क्षमता भी है। अतः कृषि, छोटी दुकान (फुटकर व्यापार) तथा छोटे उद्योगों पर भी ध्यान देकर भारत में व्यापक रोजगार नीति बनानी पड़ेगी जिससे रोजगार बढ़ने से लोगों की जेब में नकदी आये और उस नकदी से वे बाजार में जाकर वस्तुओं की मांग करें तभी अर्थव्यवस्था में मजबूती आ सकेगी। भारत व चीन में आर्थिक प्रतिस्पर्धा का धनात्मक प्रभाव यह पड़ेगा कि दोनों ही देशों में श्रम शाक्ति को महत्व मिल सकेगा। भारत को लोकतंत्र में वर्तमान में आयी ढ़ीलापन व लचकता के कारण नीतियों का क्रियान्वयन ढ़ंग से न हो पाने के कारण विकास की गति में विपक्ष के द्वारा अवरुद्धता खड़ी कर दी जाती है।


डाॅo सूर्य प्रकाश अग्रवाल
44 आदर्श काॅलोनी
मुजफ्फरनगर 251001 (उoप्रo)


डाॅo सूर्य प्रकाश अग्रवाल सनातन धर्म महाविद्यालय, मुजफ्फरनगर (उoप्रo), के वाणिज्य संकाय के संकायाध्यक्ष व ऐसोसियेट प्रोफेसर के पद से व महाविद्यालय के प्राचार्य पद से अवकाश प्राप्त हैं तथा स्वतंत्र लेखक व टिप्पणीकार हैं।


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